08 May, 2005

परिचय

t.p.mishra
07 अक्टूबर 1945 को होशंगाबाद म.प्र. में जन्में श्री तेजेश्वर मिश्र भारतीय स्टेट बैंक के अधिकारी के पद से सेवा निवृत्त हुए हैं । हिन्दी में विशेष रूप से आपने गीत विधा में सृजन किया है । विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में तथा आकाशवाणी से आपकी रचनाएँ प्रकाशित व प्रसारित होती रही हैं । आपके प्रकाशित काव्य संग्रह हैं— समय नहीं सुनता आवाजें; एक किताब है ज़िन्दगी तथा खुशबू के आयाम [समवेत संकलन] ।
सम्पर्क सूत्र-
मिश्रा बंगला
बसंत सिनेमा के पास
होशंगाबाद (म.प्र.)
दूरभाष—
07574-252639

मुक्तक

जिस पल मुझको दर्द मिला है
वह पल ही वरदान हो गया
मेरी आँखों के पानी का
गंगाजल—सा मान हो गया ।।
***


आज लेकर अश्रु चंचल दो नयन में,
प्रणय देवी द्वार पर मैं आ गया हूँ
चाहता है मन नहीं वरदान मेरा
दर्द मुझको दर्द को मै भा गया हूँ ।।
***


दो मुझे पीड़ा सहन करता जाऊँगा
दर्द में भरता जाऊंगा
दर्द से नाता जुड़ा मेरा जन्म से
मरण तक उसको निभाता जाऊंगा ।।
***


फूल कांटों में पले तो फूल है
आदमी युगों से कर रहा भूल है
कह रहा वह जिस रूप को, जिंदगी
देख लो उड़ती हुई सी धूल है ।।
***

:: -तेजेश्वर मिश्र

गीत

सबने पूजा बड़े पहाड़ों,
और खंडित पाषाण को
मेरी कलम आज भी पूजे
केवल एक इन्सान को..........।।

भूखे पेट सहा करता जो
कड़ी दोपहरी जेठ की
और फटी धोती में सहता
शीतलहर हिम पाता भी
टपटप टपके जिसकी छपरी
थोड़ी सी बरसात में
आज समर्पित मेरा सब कुछ
एक ऍसे भगवान को..........।।

जिसके एक हाथ में हल है
फिर भी प्रश्न बना है जीवन
जिसका खेत फला—फूला है
फिर भी कुटिया तो है निर्धन
जिसके छूने भर से केवल
माटी सोना हो जाती है
श्रम की बूँद—बूँद पारस है
भले लिखा हो गान को..........।।

जिसकी साँस साँस में सरगम
पग में धूल सनी है
उन्हीं पगों से मेरी धरती
दुल्हन आज बनी है
सूरज के पहले ही जिसने
छोड़ा रैन बसेरा रे
मैंने मंदिर में पूजा है
आज उसी इंसान को..........।।

***


- तेजेश्वर मिश्र

दो कविताएँ

  • तुम्हारा नेह
जैसे फैला आसमां
असीम
लगता कहीं दूर
धरती के एक किनारे
मिलता हुआ सा
लेकिन क्या कभी
नीला—आकाश
और हरी–भरी धरती
मिली है?
जब जब इस बिंदु पर
पहुँचना चाहा है
पथ बढ़ता गया है
मील दर मील
नापते पग
रूकने लगे
लेकिन धरती से
आसमां
जिस बिंदु पर
मिलता दिखा था
ठीक वैसा ही था
ना थोड़ी दूर
और न थोड़ा पास।।
***


  • शबनम
भोर की पहली किरण
मुस्कान लेकर प्रातः से
आ पड़ी निस्पंद जग में
दूर करने तम घनेरा
दूर तक फैला अंधेरा
विवशता में बँध गया
रो पड़ी तब चाँदनी
वह अश्रु शवनम बन गया।।
***

-तेजेश्वर मिश्र


क्षणिकाएँ

  • प्रश्न और उत्तर
प्रश्न तो बहुत से
जिया करती है ज़िन्दगी
कभी–कभी प्रश्न भी
लाचार हो जाते हैं
उत्तर के आगे
सर झुकाते हैं
फिर भी प्रश्नों का
सिलसिला जारी है
जबकि उत्तर की
अपनी सीमाएँ हैं
लाचारी है ।।
****
  • गुलाब

कल्पना के विपरीत
जब वास्तविकता
दिखलाई देती है
समय के हस्ताक्षर
अस्पष्ट हो जाते हैं
सूखे मुरझाये
एवं चारों ओर से
फटी हुई धरती पर
काँटों के बीच
कहीं गुलाब भटक जाते हैं ।
***



:: तेजेश्वर मिश्र ::

07 May, 2005

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